कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
पाँच सौ छह सौ क्या?
डॉक्टर भी. ला. आत्रेय अपनी व्याख्यान-यात्रा समाप्त कर अमेरिका से लौटे तो मैंने उनसे कई प्रश्न पूछे। उन्हीं में एक यह था, “आप स्वयं एक विद्वान् हैं और इस नाते निरन्तर अपने देश में विद्वानों के सम्पर्क में रहे हैं। अमेरिका में भी आप अनेक विद्वानों से मिले होंगे। क्या वहाँ के विद्वानों में और भारत के विद्वानों में आपको कुछ अन्तर दिखाई दिया?"
डॉक्टर आत्रेय ने इसका उत्तर दिया था, “वहाँ के विद्वान् बहुत 'ऐक्ज़ेक्ट' हैं और कभी अपने अनुभव से बाहर नहीं जाते।"
ऐक्ज़ेक्ट? और मैं रल-सा गया था तो उन्होंने कहा था, "हमारे विद्वान् निर्णय पहले कर लेते हैं और बाद में अध्ययन करके निष्कर्ष निकालते हैं। हम लोग ऊपर से नीचे जाते हैं, वे नीचे से ऊपर आते हैं। बातचीत में वे उतना ही कहते हैं, जितना उनके अनुभव में या अध्ययन में निश्चित रूप से आ चुका होता है। इसीलिए उनसे मिलकर एक गहराई और स्थिरता का स्पर्श अनुभव होता है और एक निश्चित परिणाम पर हम पहुँचे होते हैं !"
कामचलाऊ रूप में उनकी बात मेरी समझ में आ गयी थी, पर 'ऐक्ज़ेक्ट' का पूर्ण भाव-स्पर्श मुझे नहीं हुआ था और कभी-कभी यों ही यह ऐक्ज़ेक्ट शब्द मेरे भाव-मानस में कुछ खोजता-सा टकराया करता था। तभी मैंने पढ़ा चीनी दार्शनिक लिन यू तांग का एक उद्धरण।
उसमें कहा गया था कि अमेरिकन और एशियाई मनोवृत्ति में जो अन्तर है वह इस उद्धरण से स्पष्ट हो सकता है कि यदि किसी अमेरिकन इंजीनियर को एक सुरंग खोदने का काम दिया जाए तो वह इतनी बारीक़ी से उसका नक्शा बनाएगा कि दोनों ओर से खुदती हुई सुरंगें जब कहीं बीच में मिलकर एक होंगी तो उसकी सीध में ज़रा भी फ़रक़ नहीं होगा, पर एशियाई इंजीनियर का नक़्शा ऐसा भी बन सकता है कि दोनों तरफ़ से खुदती हई सुरंगें कहीं बीच में मिलें ही नहीं और दोनों आर-पार हो जाएँ। मज़ेदार वात यह है कि यदि अमेरिकन इंजीनियर की सुरंग में दो-चार इंचों का फ़रक़ रह गया तो वह इसे अपनी बहुत बड़ी हार मानेगा, पर एशियाई इंजीनियर सुरंग के बीच में कहीं न मिलने पर भी कहेगा, चलो कोई बात नहीं एक नहीं तो दो रास्ते हो गये !
पढ़कर खूब हँसी आयी, पर ऐक्ज़ेक्ट का ऐक्ज़ेक्ट अर्थ पूरी तरह समझ में आ गया। ऐक्जेक्ट, एकदम निश्चित, जिसमें बाल बराबर फ़रक़ न हो !
हम उन दिनों अपने जिले के शारीरिक प्रदर्शन-समारोह की तैयारियाँ कर रहे थे। रुड़की का फ़ौजी मैदान इसके लिए चुना गया था। एक दिन प्रदर्शन के मुख्य विधाता भाई गंगाधर सिंह प्रबन्ध-व्यवस्था के सम्बन्ध में छावनी के फ़ौजी अधिकारी से मिले। बातों-बातों में अधिकारी ने पूछा, 'प्रमुख दर्शकों के लिए आपको कितनी कुरसियाँ चाहिए?'
सादगी से गंगाधर सिंह बोले, “यही पाँच-छह सौ करसियाँ काफ़ी होंगी।"
झपाटा मारते से अधिकारी ने कहा, “यह पाँच सौ छह सौ क्या; 509, 513, 525, 572, 585, 595 या 600 कहिए।"
सचाई यह है कि विचारों में, बातों में और व्यवहार में ऐक्ज़ेक्ट होना, सुनिश्चित होना जीवन की ऊँचाई का मानदण्ड है। उस दिन मैं और श्री ओमप्रकाश मित्तल कहीं जा रहे थे कि एक मित्र मिले। बोले, "कल किसी समय आपसे मिलने आऊँगा।"
मित्तलजी ने कहा, "किसी समय नहीं, इसी समय बताइए कि किस समय आइएगा?"
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में